भोर.. (हिंदी कविता)

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भोर...
(उन सभी माताओ को समर्पित जिन्होने इस बंजर मन
की भुमी में संस्कारो के बिज बोये थे..)
कल की भोर आज मुँह फेरे हुऎं है...
उजालो में भी अंधेरो के सांये मिले हुऎ है..!!
कल तक कान्हा के मुरली के स्वर..
कल तक मिरा की मधुर आलाप...
कल तक कबिरदास के दोहे... और..,
कल तक भिष्म की गर्जना सुनाई पडती थी..
आज वह सब बाते क्यो..
सुरज की सतह सी धुंदली दिखाई पडती है..
आज वह सब अतित की याँदे...
इतिहास की गोलमटोल किताब दिखाई पडती है..!!
मन कभी गर्दीश मे सोचने बैठता है,तो..
पुराने पिपल पर चहकती है चिडियाँ...
सुना पनघट फिर मचलता है..
सजल नयनो में उभर आती है..
बिते भूत की चंद लम्हे और चंद घडिया..!!
कभी वह जमाना याद करें तो..
यौवन मे बचपन फिर लौट आता है...
मनरेत की चादर पर..अधनंगे पैरो से..
माँ के चिल्लाहट के प्यारभरे स्वर..
आज भी कानो में गुँजते है...
किसी कोने के अस्पष्ट झरोखोसे...!!
कलतक महाभारत पढ पढकर..
कलतक रामायण सुन सुनकर...
सचेतन मन मे राम एवं कृष्ण उभरते थे..
पर आज की चेतनाहीन दुनिया में...
कंस एवं रावणो के प्रभाव दिखते है..!!
क्या वह बिता कल आज लौट आयेगाँ..??
क्या राधा का स्वर फिर सुनाई देगा...??
चहकती शाम..धुँदलाती प्रभा..मचलता अंधेरा.
सुबह का गोपियो का कलह...
और सचेतन,संवेदनामय युग...
क्या ऎकबार पुनः जिवित हो उठेगा..??
पुराने स्मृती के कलश अभी भी....
कही ना कही सुने पडे है....
कान्हा के रासलिला के झुले...
हर मन के वृंदावन मे अनसुने गडे है...
विना किसी चिल्लाहट के...
एक अपेक्षित नई भोर की प्रतिक्षा में....!!
                               - गणेश शिंदे,दुसरबिडकर..
                                                9975767537